प्रेम:अधिकारियों एवं सहयोगी सहकर्मियों के बीच
भारतीय समाज ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में वर्षों से यह धारणा प्रचलित है कि किसी भी राजकीय अथवा औद्योगिक कार्यक्षेत्र में अधिकारियों एवं सभी सहकर्मियों के बीच प्रेमपूर्ण सम्बन्ध स्थापित होना सहज नहीं होता। अधिकार और सेवा की भावना के द्वन्द्व को लगभग प्रत्येक कार्यालय में अधिकारियों एवं सहकर्मियों के मध्य महसूस किया जाता है। कहीं-कहीं तो वैचारिक मतभेद इस स्तर तक पहुँच जाता है कि व्यवहार में उतर आता है और भाषा तथा कार्य क्षमता को भी प्रभावित कर देता है। अपने-अपने मनोभावों में उलझे अधिकारी एवं सहकर्मी कभी-कभी सम्बन्ध के दबावपूर्ण वातावरण में इस बात का अनुभव करते हैं कि कार्यालय तो फिर कार्यालय ही होता है, घर थोड़े ही होता है!
सम्बन्धों से प्राप्त अनुभव कैसे भी हों लेकिन कार्यक्षेत्र इतना भी अरुचिकर नहीं होता कि मन को सदैव के लिए भारी कर दे, कार्य में मन लगते ही कार्यालय भी अपना सा ही लगने लगता है। क्या आपने कभी सेवा से निवृत्त होने वाले किसी अधिकारी या सहकर्मी की मनोदशा और व्यवहार को उसके कार्यक्षेत्र से विदाई लेते समय देखा है? कितना भावुक समय होता है! उस दिन रह-रह कर लगता है कि कार्यालय भी एक घर जैसा ही था, एक समय तक के लिए ही सही लेकिन अपनाया तो गया था। व्यक्ति भले ही आज एक यात्री की तरह आगे बढ़ गया हो लेकिन कार्यालय उसकी पहचान भी तो थी, उस कार्यालय को उसकी आवश्यकता भी तो थी, कार्यक्षेत्र प्रतिदिन उसकी प्रतीक्षा जो करता था! अधिकारियों और सहकर्मियों को मानवीय भावनाओं की इस सुंदरता का अनुभव कभी-कभी होता तो है।
हमारा कार्यक्षेत्र वह स्थान होता है जहाँ हम कार्यालय की आवश्यकताओं और नियमों के अनुरूप ही कार्य करते हैं। व्यक्तिगत धारणा कुछ भी हो लेकिन कार्यालय को लेकर सामान्य धारणा यही है कि वह कभी भी घर-परिवार सिद्ध नहीं हो सकता, तर्क यह है कि घर-परिवार को तो हम अपनी आवश्यकता, व्यक्तिगत सोच तथा कार्यशैली के अनुरूप चला सकते हैं लेकिन कार्यालय में सभी को एक निश्चित नियमावली और सीमा के अनुसार ही कार्य-व्यवहार करना होता है। भले ही कार्यालय में भी हम वही व्यक्तित्व होते हैं जैसे कि घर पर, लेकिन कार्यालय में हमारा योगदान और व्यवहार सीमित हो जाता है। इस कारण से हम यह पाते हैं कि नौकरी-रोजगार करने वाले व्यक्तियों का जीवन दो भागों में बँट जाता है; एक भाग घर-परिवार के वातावरण में तथा दूसरा, कार्यालय या कार्यक्षेत्र के वातावरण में।
प्रेममय जीवन के इस प्रसंग में हम कार्यक्षेत्र में अधिकारियों एवं सहयोगी सहकर्मियों के बीच आपसी सद्भाव और प्रेम की संभावनाओं पर विचार करेंगे और जानेंगे कि एक अधिकारी के रूप में और एक सहयोगी सहकर्मी के रूप में हम प्रेममय जीवन को कैसे साकार कर सकते हैं। यह प्रसंग कार्यक्षेत्र से हमारे जुड़ाव को बेहतर करने और हमारी कार्यक्षमता को बल देने के साथ-साथ हमारे पूरे जीवन के विकास के प्रति समर्पित है।
अपने जीवन के अनुभवों से, थोड़े प्रयासों और संतों की कृपा के प्रसाद स्वरूप, प्रेम के सम्बन्ध में मुझ अल्पज्ञानी ने जो कुछ भी जाना है, उसे मैंने अभ्यास के लिए दो काव्यात्मक पुस्तकों “प्रेम सारावली”एवं “मैं प्रेम हूँ”के रूप में संकलित कर लिया है, मेरी बातों का आधार यही दो पुस्तकें हैं
कार्यक्षेत्र में व्यक्ति का कार्य-कौशल तो प्रकट होता रहता है और समय के साथ विकसित भी होता रहता है लेकन उसकी व्यक्तिगत भावनाएँ कार्यक्षेत्र में सामान्यतः न तो ठीक से प्रकट होती हैं ना ही विकसित होती हैं जिसका मुख्य कारण होती हैं कार्यालय की सीमाएँ और जटिलताएँ। सामान्यतः अधिकारी की दृष्टि से देखा जाए तो यह बिल्कुल ठीक है, कार्यालय की उच्च कार्यशीलता के लिए ऐसा होना भी चाहिए ताकि सहयोगी कार्मिकों द्वारा कार्य पर ही पूरा ध्यान और बल लगाया जा सके लेकिन यदि सहयोगी सहकर्मियों की दृष्टि से देखा जाए तो व्यक्तिगत भावनाएँ एक दूसरे को बड़ा बल और सहारा देती हैं तो वे कार्यशीलता में रुकावट क्यों बनेंगीं? बल्कि इसके उलट वे तो एक दूसरे को सहयोग ही देंगी। विचारधाराओं की ऐसी भिन्नताएँ ही अधिकारी को सहयोगी सहकर्मियों से अलग कर देती हैं।
प्रायः यह देखने में आता है कि कार्यक्षेत्र में अधिकारी अपने अधिकारों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं, साथ ही वे यह भी अनुभव करते हैं कि उनका उत्तरदायित्व भी अधिक है। अपने अधिकारों के प्रति गहरी संवेदनशीलता और उत्तरदायित्व का भार अधिकारी की मानसिकता पर बड़े अलग-अलग प्रभाव रखते हैं और प्रत्येक अधिकारी को इन दोनों पहलुओं पर संतुलन खोजना ही पड़ता है। जो अधिकारी अपने अधिकारों और उत्तरदायित्वों के मध्य संतुलन खोज कर उसे बनाए रखने में सफल हो जाता है, वह स्वयं की कार्य कुशलता को तो सिद्ध कर ही देता है साथ ही अपने कार्यक्षेत्र को भी सरलता और सफलता की नई ऊँचाई दे देता है।
अधिकारी के सहयोगी सहकर्मी भी कार्यक्षेत्र में प्रायः दो प्रकार के भावनात्मक लक्ष्यों से होकर गुजरते हैं। एक ओर तो वे अपने अन्य सहयोगियों से अच्छा तालमेल रखना चाहते हैं और दूसरी ओर वे इस ओर भी प्रयासरत रहते हैं कि वे अधिकारी तथा कार्यालय की अपेक्षाओं पर खरे उतर सकें। दोनों ही वैचारिक भावनाओं में सकारात्मक दृष्टिकोण की बहुत आवश्यकता होती है, या ऐसा कह लें कि बिना सकारात्मकता के ये दोनों भावनात्मक लक्ष्य कभी भी प्राप्त नहीं हो सकते। कार्यक्षेत्र की भी अपनी जटिलताएँ होती हैं, और इन्हीं जटिलताओं का यह प्रभाव होता है कि प्रायः एक सहकर्मी दोनों भावनात्मक लक्ष्यों को ठीक से एक साथ प्राप्त नहीं कर पाता।
अधिकारी की विचारधारा को और उसके सहयोगी सहकर्मियों की विचारधाराओं को यदि एक साथ रख दिया जाए तो प्रायः उनमें स्पष्ट अंतर दिखाई देता है। अधिकारी और सहकर्मी अलग-अलग प्रकार की कार्य शैली और जीवन शैली में बँटे हुए दिखाई देते हैं। कार्यक्षेत्र का जीवन पर प्रभाव तो देखिए! कार्यक्षेत्र में बढ़ती या गिरती प्रतिष्ठा और आर्थिक स्तर जीवन का जैसे मूल्यांकन ही कर डालते हैं, जैसे वे कोई दर्पण हो गए हों और जीवन को उसकी सूरत, उसका स्तर दिखाते हों, जैसे वे जीवन पर वर्ग की ऐसी मुहर लगा देते हों जो व्यक्ति को कार्यक्षेत्र ही नहीं बल्कि पूरे समाज में एक पायदान दे चले कि लो अब तुम इस इस पायदान को उपलब्ध हो और अब कहो कि मैं यह हूँ और यहाँ हूँ, मेरे देश-प्रदेश में मेरी पहचान यही तो है।.
अधिकारी और उसके सहयोगी सहकर्मियों की वैचारिक भिन्नता की जड़ में चार बातें मुख्य हैं। इनमें से दो बातें अधिकारी की विचारधारा के द्वारा उत्पन्न होती हैं और दो सहयोगी सहकर्मियों की विचारधारा के द्वारा। अधिकारी प्रायः अपने सहयोगी सहकर्मियों से दो मुख्य अपेक्षाएँ रखता है; एक तो यह कि सहयोगियों द्वारा कार्य में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दिया जाए और दूसरा यह कि उसके और सहयोगियों के मध्य उतना सामंजस्य बना रहे जो काम-काज में प्रबंधन की समस्या उत्पन्न न कर दे। दूसरी ओर, अधिकारी के सहयोगी सहकर्मी भी अधिकारी से दो मुख्य अपेक्षाएँ रखते हैं; एक तो यह कि अधिकारी उनके योगदान को उचित मान्यता दे और दूसरी यह कि अधिकारी अपने अधिकारों का अहंकारपूर्ण प्रदर्शन न करे बल्कि उनसे भावनात्मक रूप से जुड़े। जैसे ही अधिकारी तथा उनके सहयोगी सहकर्मी इन तथ्यों को गंभीर हो कर समझ लेते हैं उसी क्षण उनके बीच पनप रही वैचारिक भिन्नता की समस्या हल हो जाती है।
हमने यह तो देख लिया कि अधिकारी और उसके सहयोगी सहकर्मियों की वैचारिक भिन्नताओं का हल क्या है, लेकिन प्रायः हम यह पाते हैं कि कार्यक्षेत्र में अन्य प्रकार की जटिलताएँ भी होती हैं जो आसान से दिख रहे उपायों को इस प्रकार उलझा कर रख देती हैं कि कोई-कोई कार्यालय ही आदर्श कार्यालय सिद्ध हो पाता है। सारी की सारी जटिलताएँ हमारी मानसिकता और हमारे व्यवहार की देन हैं जैसे कि बातचीत में भाषा का संतुलित प्रयोग न होना और यह जितना अधिकारी के लिए ध्यान देने योग्य है उतना ही सहयोगी सहकर्मियों के लिए। फिर यह भी एक समस्या है कि अधिकारियों पर पक्षपात पूर्ण व्यवहार का आक्षेप हो और सहयोगी सहकर्मियों पर गुटबाजी का। परिस्थितियाँ तब और जटिल हो जाती हैं जब अधिकारी या सहयोगी सहकर्मी स्वयं की कमियों को स्वीकारना भूल जाते हैं और उन्हें लगता है कि वे कभी गलत नहीं होते, दोष तो उन्हें छोड़कर किसी अन्य का ही होता है। आपको भी प्रायः ऐसा लगता ही होगा कि आज के सभ्य समाज में शब्दों का संतुलित प्रयोग और अपनी कमियों को स्वीकारना कितना कठिन हो गया है!
पंथी प्रेमी छोड़कर सब का यही प्रकार
नहीं चुनें सेवा सदा पर खोजें अधिकार
-II प्रेम सारावली II-
कर्तव्य पथ पर चलते हुए ओ पथिक, तुम इस तथ्य को भली प्रकार अपने अनुभवों से समझ लेना कि एक प्रेमी व्यक्ति ही है जिसका सारा ध्यान केवल सेवा भावना पर ही रहता है, अपने अधिकारों पर नहीं। प्रेमी व्यक्ति को छोड़कर अन्य सभी प्रायः इसके विपरीत भाव ही रखते देखे जाते हैं, उनका ध्यान सेवा पर न जा कर अपने अधिकारों की खोज और प्रदर्शन पर रहता है।
छोड़ प्रेम झूठी सदा आन-बान दर्शाय
खुद भी तरसे प्रेम को अपनों को तरसाय
-II प्रेम सारावली II-
प्रेम जैसे सुलभ और सभी को एक दूसरे से जोड़ कर रखने वाले गुण को छोड़ कर जो लोग अपने मान-अभिमान का प्रदर्शन करने में लगे रहते हैं उन्हें यह विचार करके देखना चाहिए कि ऐसा करके वे स्वयं को और अपनों को भी वंचित ही बना रहे हैं, ऐसे मानी अहंकारी व्यक्तियों को भी किसी का सच्चा प्रेम अधिक समय तक प्राप्त नहीं हो पाता और न ही वे किसी को निरंतर प्रेम दे पाते हैं।
कार्यक्षेत्र की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि चाहे अधिकारी हो या सहयोगी सहकर्मी सभी को अपनी सामान्य भावनाएँ प्रकट करने का अवसर मिलते रहना चाहिए, सभी के बीच स्वस्थ संवाद होते रहने चाहिए क्योंकि हम भले ही कार्यक्षेत्र में एक निश्चित सीमा और नियमावली से बँधे हों लेकिन हम हैं तो मनुष्य ही, कोई मशीन तो नहीं। हमारे लिए सकारात्मक भावनाओं की आवश्यकता हर परिस्थिति और समय में होती ही है। जब हम अपनी प्रबल भावनाओं को कैद करके नष्ट करने की कोशिश करते हैं तो वे मन में ही गहरी सुरंग बना बैठती हैं और समय पा कर ऐसी प्रतिक्रिया देती हैं जिन्हें सम्हालना बहुत मुश्किल हो जाता है, फिर हमारी कार्य क्षमता और कार्यक्षेत्र असंतुलित होने लगते हैं ।
मेल-मिलाप का मैं अँगना
मैं गलियारा, सबका अपना
सत्व-सरिता के किनारे बस गया एक गाँव हूँ
मैं प्रेम हूँ
-II मैं प्रेम हूँ II-
प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि मैं उस आँगन की तरह हूँ जो लोगों के आपसी मेल-जोल का ऐसा स्थान होता है जहाँ वे ठहर कर एक दूसरे को समझते हैं, मैं किसी रास्ते की तरह हूँ जो सभी को अपनाता है और जिसे सभी अपनाते हैं, मैं स्वयं में उस गाँव की तरह पूर्ण हूँ जो सच्ची भावनाओं की नदी के किनारे बसता है ।
हम चाहे जो भी कार्य करें, हमारा कार्यक्षेत्र हमारे जीवन का हिस्सा ही होता है और हमारा जीवन हमारे कार्यक्षेत्र का। भले ही हम अपने जीवन को आर्थिक रूप से उन्नत और सम्पन्न बनाने के लिए कार्यक्षेत्र ढूँढते हो या फिर अपनी रुचि और प्रतिभा को सिद्ध करने के लिए, हमें इस बात का अनुभव तो होता ही है कि प्रत्येक कार्यक्षेत्र में कार्य करने की अपनी विधियाँ और आनंद होता है। कार्य-कौशल जब विकसित होता है और अपनी उपयोगिता सिद्ध करता है तो व्यक्ति ही नहीं बल्कि पूरा कार्यक्षेत्र परिश्रम, प्रतिभा और सहभागिता के आनंद से भर उठता है, ऐसा कार्यालय कार्योत्सव मनाता है। जब हम कार्यक्षेत्र को मन से अपना लेते हैं और कार्यशीलता में गहरे उतर जाते हैं तो हमारा कार्यक्षेत्र स्वतः ही हमारे लिए आदर और संतोष का प्रबंध कर देता है। अपने कार्यक्षेत्र में सफल हुआ प्रत्येक व्यक्ति यह भली भाँति सिद्ध करता है कि कि हमारे कार्यक्षेत्र को हमारी संतुलित मनोदशा और व्यवहार की भी उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी हमारे कार्य-कौशल और समर्पण की।
स्नेह और सद्भाव की तरंगों के अनुभव में उतर कर मैं अपने देश के प्रत्येक अधिकारी और उसके सहयोगी सहकर्मियों से विनयपूर्वक पूछता हूँ कि क्या हम इस भावना को साकार होता देखना चाहते हैं कि प्रत्येक कार्यक्षेत्र वह स्थान बन जाए जहाँ लोग पहुँचते ही कार्य को भार नहीं बल्कि आवश्यकता के रूप में देखें, जहाँ प्रत्येक अधिकारी को निरंतर यह स्मरण रहे कि वह अपने सहयोगी सहकर्मियों से भी बड़ा सेवक है, जहाँ प्रत्येक सहयोगी सहकर्मी इस बात का संतोष लेकर अपने कार्यों के प्रति समर्पित हो कि उसका अधिकारी किसी परिवार के संरक्षक से कम नहीं जिससे प्रत्येक सदस्य जुड़ाव का अनुभव करता हो, जिसमें अहंकार भरे अधिकार की झलक भी न दिखती हो, जो किसी को अपने अधीन न समझता हो बल्कि एक सहयोगी का भाव रखता हो और जिसके व्यवहार में प्रेम प्रकट होता हो?
किसने झिड़का द्वेष से किसने किया प्रणाम
कौन झुका यह सोचना नहीं प्रेम का काम
-II प्रेम सारावली II-
प्रेम के भाव को जी लेने वाले व्यक्ति का ध्यान स्वभावतः इस ओर जाता ही नहीं कि किसने मेरे साथ द्वेषपूर्ण व्यवहार किया और किसने आदर दे दिया या किसने स्वयं को मेरे प्रति समर्पित किया। प्रेमी व्यक्ति मन की इन सतही भावनाओं से ऊपर उठ कर प्रेममय जगत में सदैव आत्मसंतोष का अनुभव करता है।
मेरी प्रेममय चेतना से यह प्रार्थना है कि प्रत्येक मानव को प्रेम का ऐसा अनुभव मिले कि उसे समय रहते प्रेम का महत्व समझ में आ जाए, मानव जीवन प्रेममय हो जाए I
सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!